Photo1842सुबह के 10 बजे थे, रोज की तरह क्लिनिक के काम से मुक्त होने के बाद ,जैसे ही भोजन करने के लिए बैठा ही था की ,नेत्रदान के लिए काम में लिए जा रहे,मोबाइल पर रिंग आई , मैं समझ गया जरूर किसी के पार्थिव शरीर से नेत्रदान लेने के लिए कॉल आया है, मेरा अंदाज़ा सही निकला। थोड़े दिन पहले डॉक्टर्स की एक आम सभा में नेत्रदान पर हुई परिचर्चा से मुलाकात हुई,एक चिकित्सक श्री गिरीश जी शर्मा जी का फ़ोन था, मैंने तुरंत पूरा पता लिखने के बाद, हमारे तकनीशियन महेंद्र जी को कॉल किया और एरोड्राम पर मिलने को कहा। मेरी अर्धांग्नी डॉ. संगीता ने कहा की भोजन तो कर जाओ, पर यह इसलिए करना संभव नहीं था क्यूंकि कोटा से  40 किलोमीटर दूर बालुहेडा गाँव में , तीन जवान 10-12 वर्ष के बच्चो की साफ़ पानी के तालाब में,डूबने से हुई मौत को पोस्टमार्टम हुए भी एक घंटा हो चुका था। सब काम पूरा हो जाने के कारण परिवार वाले बच्चो के शव  बिना किसी देरी के जल्द से जल्द चाहते थे। इस कारण बिना समय का एक पल गँवाए मेरा घर से निकलना जरूरी था।

हमारे नए ज्योति-मित्र डॉ. गिरिश शर्मा जो की उस तहसील की Block CMHO भी है, उनकी टीम के डॉ. सदस्यों ने मिलकर परिवार के सदस्यों को नेत्रदान के लिए प्रेरित कर रखा था। साथ ही दो पुत्र जिस परिवार के थे , उस परिवार के बच्चो के पिता व दादा जी भी नेत्रदान के लिए समझाने पर तैयार हो गए थे,पर यह नहीं चाहते थे की घर की महिलाओं को व गाँव के ना-समझ लोगों को इसका पता चले,इसलिए यह नेक काम शीघ्र  से शीघ्र हो जाए, ऐसा सब परिवार वालो की इच्छा थी।

समय कम था, इधर महेंद्र जी को आने में भी समय था, तब तक मैंने अपने स्तर पर यह कोशिश की, कहीं से कोई एम्बुलेंस, जीप या कार मिल जाए तो जल्दी पहुंचा जा सके, पर सभी कोशिश नाकाम रही।

ऐसे में बाइक से जाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था, ऐसे कम समय में अगर हम सभी को बाइक चलाने में व सकुशल पहुँचाने में सिर्फ हमारी शाइन इंडिया फाउंडेशन संस्था के उपाध्यक्ष श्री उत्पल राजौरिया जी पर ही विश्वास था। क्यूंकि यह पहले भी अपनी जान हथेली पर रखकर महेंद्र जी को दो घंटे में अपनी पल्सर बाइक से 130 किलोमीटर ले जाकर भवानीमंडी से नेत्रदान लेकर आ चुके हैं।

जैसे ही एरोड्राम पर पहुँच कर मैंने उत्पल जी को कॉल किया, वह हमेशा की तरह 5 मिनट में हमारे सामने थे।

रास्ते में सभी से बालुहेडा का पता पूछते-पूछते तेज़ गति से हम तीनों (मैं, महेंद्र व उत्पल जी ) निकल पड़े। उत्पल जी पहले की तरह से अभी भी खुद अपनी बाइक चला रहे थे , उनके पीछे मैं था, ओर सबसे पीछे महेंद्र जी थे,एक घंटे का सफ़र हो जाने के बाद,साथ चलते हुए कार वालों से बालुहेडा का पता पुछा,तो उन्होंने कहा की आप तेज़ जाओ अभी तो एक घंटे का सफ़र बाकी हैं।

बार-बार डॉ. गिरीश शर्मा जी,SDM सांगोद व थानाधिकारी सांगोद का फ़ोन आ रहा था, जो की जायज़ था, क्यूंकि गाँव वाले इस बात से अंजान थे,की जब सभी काम हो चूका तो मृत बच्चो के माँ-पिता शव लेने में क्यूँ देरी कर रहे हैं। एक परिवार जिसके एक पुत्र की मृत्यु हुई थी,जब उसको पता चला की नेत्र-दान  लेने कोई टीम कोटा से आ रही है, तो उसने अपने पुत्र के नेत्रदान करने के लिए मना कर दिया। साथ ही जिसके 2 पुत्रों की मृत्यु हुई थी उनको भी मना किया की तुम यह नेत्रदान करा-कर बच्चो का अगला जन्म बिगाड़ रहे हो।

इधर जैसे ही यह पता चला की एक घंटे का सफ़र और है,उत्पल जी ने स्पीड तेज़ की,और तभी एक ऐसा स्पीड ब्रेकर आया,जिससे उछल कर महेंद्र जी निचे गिर गए। ऐसा नहीं था की पीछे स्पीड ब्रेकर नहीं थे, या स्पीड तेज़ नहीं थी, पर यह वाला स्पीड ब्रेकर कुछ ज्यादा ऊँचा था।

हमको जो आखरी वाले राहगीर ने जो सूचना दी थी वो भी गलत थी, क्यूंकि जहाँ हम गिरे उससे 500 मीटर की दूरी पर ही बालुहेडा का वह अस्पताल था, जहाँ नेत्रदान लेने थे। हमको देर होता जान कर खुद डॉ. गिरीश जी हमको देखने के लिए अपनी कार से उधर ही आ रहे थे, उन्होंने रोड पर महेंद्र जी को गिर देख कर कार रोकी, मैं और उत्पल जी बाइक की स्पीड को कंट्रोल कर लेने से गिरने से बच गए, स्पीड तेज़ होने के कारण महेंद्र जी को हाथों में, और पीछे कूल्हों पर चोट आई। कपडे पूरे फट गए थे, कुछ बाकि रहा था तो वो था हमारी टीम का जज्बा।

कार से हम अस्पताल लाये गए, वहां महेंद्र को कूलर के सामने बिठाया, मैं खुद अपने होश खो बैठा था, जिस तरह से बाइक से गिरे थे बचना मुश्किल था, इसके बाद थोडा सा स्प्रीट से हाथ धो कर, दर्द होने के बावजूद महेंद्र जी ने दस्ताने पहने, और उन दोनों बच्चो के नेत्रदान लिए।

तब तक गाँव वालों के बीच जाकर मैंने व  मेरे मित्र उत्पल राजौरिया जी ने सभी गाँव वालों को नेत्रदान लेने से लेकर नेत्र प्रत्यारोपण की सम्पूर्ण प्रक्रिया बताई।

 

डॉ. कुलवंत गौड़ 
संस्थापक व अध्यक्ष,शाइन इंडिया फाउंडेशन, कोटा 
सह- सचिव, आई बैंक सोसायटी ऑफ़ राजस्थान, कोटा चैप्टर
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