ग्लूकोमा के साथ जीवन – दिव्या शर्मा
एक दृष्टिहीन लड़की होने की वजह से, मुझें अपने जीवन के हर चरण में विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ता हैं। आठ क्लास तक मैं अपनी जुड़वा बहन के साथ सामान्य बच्चों के स्कूल गई। मेरी मां उस स्कूल में वरिष्ठ अध्यापक थी इसकी वजह से मुझे क्लास में बैठने की इजाजत मिली और हर क्लास में कुछ अध्याय की मौखिक परीक्षा के आधार पर पास कर दिया जाता था।
जब मैं आठवी क्लास में थी तो मुझे स्कूल छोड़ने के लिए कहा गया क्योंकि वह एक दृष्टिबाधित व्यक्ति को अपने स्कूल में आगे पढ़ाई नहीं करने देंगें। उसके बाद मैंने स्कूल छोड़ दिया और अपनी पढ़ाई घर से ही जारी रखी। अगले दो साल मैंने बहुत ज्यादा पढ़ाई नहीं की। यहां मैं यह बताना चाहुंगी कि मैं पंजाब एक छोटे शहर नया नागल से हूँ जहां दृष्टिहीन बच्चों के लिए कोई विशेष स्कूल या संस्थान नहीं हैं। यह वह समय तथा जब मैंने अपना सारा समय घर में ही बिताया। मैं अपना समय नहीं बरबाद करना चाहती थी। इसलिए मैंने कम्प्यूटर के साथ प्रयोग करना शुरू कर दिया। मेरा भाई और मेरे पिता मुझको हमेशा मना करते थे कि मैं कम्प्यूटर से दूर रहूं, उनको लगता था कि मैं डेस्कटाप मशीन खराब कर दूंगी। लेकिन मैंने उनकी बात पर बहुत ध्यान नहीं दिया और कम्प्यूटर को सीखने का प्रयास जारी रखा। उस समय मैं मैग्नीफायर और बड़े फॉन्ट का इस्तेमाल करके कम्प्यूटर का प्रयोग करती थी। साथ ही साथ मैं अंग्रेजी भी सीख रही थी। 2008 में मैंने क्लास 10 की परीक्षा (पंजाब स्टेट एडुकेशन बोर्ड) एक प्राईवेट छात्रा की हैसियत से दी और 80 प्रतिशत अंक लायी। 2010 में मैंने 76 प्रतिशत अंको के साथ 12 की परीक्षा पास की। अभी तक मैंने अपनी पढ़ाई अपने माता-पिता की मदद से की। उन्होंने मेरे लिए स्केच पेन की मदद से बड़े आकार में नोटस लिखें। यह वह समय था जब एक पत्रिका में स्क्रीन रीडर के बारे में प्रकाशित लेख पढ़ा। अपनी आंखों की नियमित जांच के लिए जब मैं दिल्ली गई तो वहा पर मुझे एक सज्जन मिले जिन्होंने हमें जॉस(स्क्रीन रीडर) के बारे में बताया। दिल्ली से वापस आने के बाद मैंने अपने कम्प्यूटर पर जॉस स्क्रीन रीडर इंस्टाल किया। मैं खुद से ही वह सारे कंमाड जो स्क्रीन रीडर के साथ कम्प्यूटर के लिए जरूरी थे सीखना शुरू किया। धीरे-धीरे मैंने इसको अच्छे से सीख लिया और तकनीकि की मदद मेरा जीवन आसान हो गया। मैंने अपनी स्नातक की पढ़ाई स्क्रीन रीडर की मदद से की। हिमाचल विश्वविद्यालय में ज्यादातर पढ़ाई हिन्दी में होती है, विद्यार्थीयों के लिए अंग्रेजी की किताबे बहुत कम थी। इसलिए मेरे माता-पिता ने विभिन्न विषयों की किताबों को पढ़ कर सुनाया और मैंने उनको कम्प्यूटर पर स्क्रीन रीडर की मदद से टाइप किया ताकि मैं पढ़ाई ठीक से कर सकू। मैं जॉस स्क्रीन रीडर की मदद से लिखने और पढ़ने का काम किया। स्नातक की पढ़ाई मैंने इसी प्रकार से की। कई – कई घंटे लग जाते थे कम्प्यूटर पर किताब टाईप करने में। मुझे ग्रेजुएशन में 69 प्रतिशत अंक आये। यहां यह बताना जरूरी होगा कि सारी परीक्षाए मैंने लेखक की मदद से दी।
इस संघर्ष ने मेरा लैपटाप से परिचय करा दिया। मैंने स्क्रीन रीडर की मदद इंटरनेट पर खोज-बीन शुरू की और कुछ नेटवर्किंग साइटस में शामिल हो गई। जल्दी ही मैंने इंटरनेट पर दृष्टिबाधित लोगों को खोजना शुरू किया और एक दिन मैं एक ऐसे महिला के बारे में जानकारी मिली जो कि दृष्टिबाधित थी और उसने अपनी दृष्टिबाधिता के बारे थोड़ी जानकारी दी हुई थी। हम लोग दोस्त बन गये। वह दिन था और आज का दिन है, अब 300 से ज्यादा दृष्टिबाधित मेरे दोस्त है। मै स्काईप, फेसबुक, ब्लाग का बहुत इस्तेमाल करती हूँ। मैं अंग्रेजी में परास्नातक की पढ़ाई कर रही हूँ और वर्तमान में द्वितीय सेमेस्टर में हूँ। अब मैं किताबों को टाईप करने के बजाये उनकों स्कैन कर लेती हूँ और स्क्रीन रीडर की मदद से पढ़ती हूँ।
पढ़ाई के अलावा मैं स्वतंत्र लेखन के साथ-साथ दृष्टिबाधितों द्वारा चलाये जा रहे आनलाईन रेडियों स्टेशन में आर.जे. हूँ। मेरे लेख और कवितायें विभिन्न पत्रिकाओं जैसे क्रास द हर्डल में छप चुकी हैं। हाल ही में मुझे हिन्दुस्तान टाईम्स की तरफ से ‘द बेस्ट लेटर ऑफ द विक’ का पुरस्कार भी मिला है। मेरे शौक की एक लंबी लाईन है। मुझे खाना बनाना पंसद है, मुझे संगीत से प्यार है, गाना गाना, हारमोनियम बजाना, गिटार बजाने का भी शौक है। मुझे संगीत (गायन-वादन) में डिप्लोमा भी मिला है, चेस भी मैं बहुत अच्छा खेलती हूँ।
यहां मैं यह बताना चाहूंगी कि मुझे कला का हुनर भी उपहार में मिला है। मैं जब छोटी थी तब तस्वीरे बनाती थी और मैंने कई सारे ईनाम भी जीते, मुझे पोगो और कार्टून नेटवर्क चैनल ने खुशी की दुनियां कार्यक्रम से उपहार भी मिले। मेरी चित्रकला को टी.वी पर दिखाया भी गया। उन्होंने यह भी बताया कि यह तस्वीरे दृष्टिबाधित द्वारा बनाई गई है। दुर्भाग्यवश मुझे तस्वीरे बनाना बंद करनी पड़ी। मुझे पेपर को अपनी आंखों के बहुत नजदीक लाना पड़ता है, इतना कि मेरी नाक भी पेपर को छूने लगती। आंखों में दर्द और दबाव की वजह से मुझे अपनी चित्रकारी को छोड़ना पड़ा। मैं दो शब्दों को बहुत नजदीक लाकर पढ़ तो सकती हूँ लेकिन इससे मेरी आंखों में बहुत दर्द होता है और बची हुई 25 प्रतिशत रोशनी पर भी दबाव पड़ता हैं। अब मैं तकनीकि की मदद से अपनी पढ़ाई और कम्प्यूटर पर 99 प्रतिशत काम स्वयं से कर लेती हूँ। मुझे अब अपनी मोबिलिटी पर काम करना है। मैं आत्मविश्वास से भरी हुई हूँ, और स्मार्ट चश्मा पहनती हूँ जिसकी वजह से लोग आसानी से नहीं जान सकते है कि मैं दृष्टिबाधित लड़की हूँ। मुझे अकेले जाने, आस-पास के लोगों को पहचानने में दिक्कत होती है लेकिन अब मैं कुछ साल पहले जैसी थी उससे बहुत बेहतर हूँ।



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