मेरे अपने शब्दों में थके हुए लेकिन हारे नही

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–  नेहा अग्रवाल

एक परंपरागत भारतीय परिवार में सबसे बड़ा बच्चा होने के फायदे भी हैं और नकुसान भी। प्राकृतिक रूप से उत्साह, ऊर्जा और उमंग से भरा मेरा महात्वाकांक्षी जीवन 19 वर्ष की आयु में हमेशा के लिए बदल गया। स्टीवेन-जानसन सिन्डरोम (वायरल बुखार के दौरान दवा के कारण हुई प्रतिक्रिया) की जाच ने एक तगड़ा झटका दिया और मैं 95 प्रतिशत दृष्टिहीन हो गई। दृढ़निश्चयी, मजबूत और स्थिति के अनुरूप अपने आप को बना लेने की क्षमता के कारण ही मेरे संघर्ष की शुरूआत हो सकी। मैंने अपनी भीतरी और बाहरी परेशानियों से लड़ते हुए लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु अपने आप को तैयार किया। मेरे परिवार ने एक ऐसी स्थिति जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी से निपटने में मेरा साथ दिया और जीवन की समानता जो कि खत्म हो चुकी थी को लाने में भी मेरे साथ संघर्ष किया। डर और प्रतिरोध ने मेरे वातावरण को अधिक चुनौतीपूर्ण और रास्तों को कठिन बनाया।
जब मैं पीछे की तरफ देखती हूं तो, 2003 में, जी हां 2003 में मुङो ऐसा महसूस हुआ था जैसे किसी तूफान ने बहुत जोर की टक्कर मारी हो। जीवन बरबादी के शिखर पर था, अंतहीन निराशा का भाव, ऐसा महसूस होता था जैसे फिर दोबारा से कभी जीवन पहले जैसा नहीं होगा। इस अस्पष्टता से निपटना मेरे लिए बहुत चुनौतीपूर्ण था।
मैं यह स्वीकार ही नहीं कर पा रही थी किं मुङो दृष्टिहीनों का जीवन जीना होगा। मैं अपने मां-पिता और अपने आस-पास लोगों को कभी भी देख नहीं पाउंगी। मैं नहीं जानती थी, मैं कहा हूं, क्या छू रही हूं। अपने आस-पास को छूकर ही महसूस करना मेरे लिए बचा था। यह मेरे जीवन का सबसे कठिन दौर था। मैं लड़ रही थी निराशा से, आत्मघृणा से साथ ही साथ अनुभव कर रही थी समाज से मिल रहे बहिष्कार का। तभी किसी ने सुझाया कि मै आर्ट आफ लिविंग के कोर्स में अपना दाखिला ले लूं। बहुत सारी चुनौतियों, बिहष्कार, सहमति, और उतार – चढ़ाव के साथ मैंने अपने जीवन में छाये अंधकार के बीच एक रोशनी की किरण देखनी शुरू की।
मेरे सामान्य जीवन की शुरूआत हो चुकी थी। मैं हैदराबाद में पायल कपूर से मिली, जो कि स्वयं भी दृष्टिहीन हैं और उन्होंने न सिर्फ मुङो सन्तावना दी बल्कि मुङो पढ़ाई जारी रखने के साथ-साथ कम्प्यूटर सीखने के लिए भी प्रेरित किया। पायल कपूर से मिलने के बाद मैंने अपने आप को संभाला और मनोविज्ञान में स्नातक की पढ़ाई पूरी की। साथ ही साथ मेरी सूचना और प्रोद्योगिकी में रूचि बढ़ना शुरू हुई और मैंने कम्प्यूटर के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताना शुरू किया।
18 जुलाई 2011 का दिन मेरे जीवन में एक बड़ा बदलाव लाया। यह वह दिन था जिसने मुङो स्वयं को साबित करने का मौका दिया। मैनें आई.बी.एम. के सहयोग से इनेबल-इंडिया बैंगलौर द्वारा संचालित 3 महीने का सेवा प्रबंधन प्रशिक्षण सफलतापूर्वक सम्पन्न किया। मुङो इंटरनशिप करने का भी मौका मिला। ईनेबल-इंडिया के उम्मीदवार डाटाबेस पर मैनें तीन महीने तक नौसिखिऐ की तरह काम किया, इस दौरान मुङो अपने आप को काम के माहौल के अनुरूप ढालने और अपनी क्षमताओं का बढ़ाने का मौका मिला।
मार्च 2012 में मैं वापस हैदराबाद अपने घर आ गई जहां मैंने अपने जीवन के 9 साल दृष्टिहीनता के साथ बिताए थे। आज मैं आत्मविश्वास से भरी हुई हूं, सफेद छड़ी की सहायता से मैं चल-फिर सकती हूं, अपने सारे काम कर लेती हूं। बिना अपना समय बरबाद किए अब मैं अपना जीवन गरिमा और विश्वास के साथ स्वंतत्नता पूर्वक जी रही हूं। मैं लगातार आई.बी.एम. हैदराबाद में अलग-अलग प्रकार की नौकरी के लिए साक्षात्कार देती रही। 22 अक्टूबर 2012 को वह घड़ी आई जिसका मुङो बेसब्री से इंतजार था। मुङो आई.बी.एम. में परियोजना समन्वयक के पद पर काम करने की पेशकश आई जिसे मैंने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। अब मैं एक ख्याति प्राप्त संस्था आई.बी.एम. में काम कर रही हूं।
मेरे माता-पिता मेरी इस यात्ना के बारे में कहते हैं कि तुम बहुत बदल गई हों, तुमने ऐसा कौशल हासिल किया जिससे तुम न सिर्फ अपने साथियों के साथ ठीक तरह से व्यवहार कर सकोगी बल्कि अपने आपको जीवन में आगे बढ़ने के लिए एक अच्छी स्थिति में भी पाओगी। पहले छोटे कदम ने अब गति पकड़ ली है और तेजी के साथ आगे की ओर बढ़ रहा है। हमें तुम पर गर्व है।

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a social development organisation is committed to the cause of blind people in our society. Towards this we had made a humble beginning in 2006. It is registered as a Public Charitable Trust under Indian Trust Act, 1882.

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